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यो वा॑मश्विना॒ मन॑सो॒ जवी॑या॒न्रथ॒: स्वश्वो॒ विश॑ आ॒जिगा॑ति। येन॒ गच्छ॑थः सु॒कृतो॑ दुरो॒णं तेन॑ नरा व॒र्तिर॒स्मभ्यं॑ यातम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo vām aśvinā manaso javīyān rathaḥ svaśvo viśa ājigāti | yena gacchathaḥ sukṛto duroṇaṁ tena narā vartir asmabhyaṁ yātam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। वा॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। मन॑सः। जवी॑यान्। रथः॑। सु॒ऽअश्वः॑। विशः॑। आ॒ऽजिगा॑ति। येन॑। गच्छ॑थः। सु॒ऽकृतः॑। दु॒रो॒णम्। तेन॑। न॒रा॒। व॒र्तिः। अ॒स्मभ्य॑म्। या॒त॒म् ॥ १.११७.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजधर्म को अगले मन्त्र में कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरा) न्याय की प्राप्ति करानेवाले (अश्विना) विचारशील सभा सेनाधीशो ! (यः) जो (सुकृतः) अच्छे साधनों से बनाया हुआ (स्वश्वः) जिसमें अच्छे वेगवान् बिजुली आदि पदार्थ वा घोड़े लगे हैं, वह (मनसः) विचारशील अत्यन्त वेगवान् मन से भी (जवीयान्) अधिक वेगवाला और (रथः) युद्ध की अत्यन्त क्रीड़ा करानेवाला रथ है, वह (विशः) प्रजाजनों की (आजिगाति) अच्छे प्रकार प्रशंसा कराता और (वाम्) तुम दोनों (येन) जिस रथ से (वर्त्तिः) वर्त्तमान (दुरोणम्) घर को (गच्छथः) जाते हो (तेन) उससे (अस्मभ्यम्) हम लोगों को (यातम्) प्राप्त हूजिये ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुषों को चाहिये कि मन के समान वेगवाले, बिजुली आदि पदार्थों से युक्त, अनेक प्रकार के रथ आदि यानों को निश्चित कर प्रजाजनों को सन्तोष देवें। और जिस-जिस कर्म से प्रशंसा हो उसी-उसी का निरन्तर सेवन करें, उससे और कर्म का सेवन न करें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजधर्ममाह ।

अन्वय:

हे नराश्विना सभासेनेशौ यः सुकृतः स्वश्वो मनसो जवीयान् रथोऽस्ति स विश आजिगाति वा युवां येन रथेन वर्त्तिर्दुरोणं गच्छथस्तेनास्मभ्यं यातम् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (वाम्) युवयोः (अश्विना) मनस्विनौ (मनसः) मननशीलाद्वेगवत्तरात् (जवीयान्) अतिशयेन वेगयुक्तः (रथः) युद्धक्रीडासाधकतमः (स्वश्वः) शोभना अश्वा वेगवन्तो विद्युदादयस्तुरङ्गा वा यस्मिन् सः (विशः) प्रजाः (आजिगाति) समन्तात्प्रशंसयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (येन) (गच्छथः) (सुकृतः) सुष्ठुसाधनैः कृतो निष्पादितः (दुरोणम्) गृहम् (तेन) (नरा) न्यायनेतारौ (वर्त्तिः) वर्त्तमानम् (अस्मभ्यम्) (यातम्) प्राप्नुतम् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुषैर्मनोवद्वेगानि विद्युदादियुक्तानि विविधानि यानान्यास्थाय प्रजाः संतोषितव्या। येन येन कर्मणा प्रशंसा जायेत तत्तदेव सततं सेवितव्यं नेतरम् ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजपुरुषांनी मनाप्रमाणे वेगवान, विद्युत इत्यादी पदार्थांनी युक्त, अनेक रथ इत्यादी याने तयार करून प्रजेला संतुष्ट ठेवावे व ज्या ज्या कर्माची प्रशंसा होईल त्याचे निरंतर ग्रहण करावे. त्यापेक्षा वेगळ्या कर्माचे ग्रहण करू नये. ॥ २ ॥